भारत के प्रमुख शिक्षण के सूत्र-हिंदी में

 

नमस्कार दोस्तो ,

इस पोस्ट में हम आपको भारत के प्रमुख शिक्षण के सूत्र के बारे में जानकारी देंगे, क्युकी इस टॉपिक से लगभग एक या दो प्रश्न जरूर पूछे जाते है तो आप इसे जरूर पड़े अगर आपको इसकी पीडीऍफ़ चाहिये तो कमेंट के माध्यम से जरुर बताये| आप हमारी बेबसाइट को रेगुलर बिजिट करते रहिये, ताकि आपको हमारी डेली की पोस्ट मिलती रहे और आपकी तैयारी पूरी हो सके|

भारत के प्रमुख शिक्षण के सूत्र


शिक्षाविदों एवं मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए अनेक तत्वों का प्रतिपादन किया है तथा इन तत्वों का व्यावहारिक जीवन में भी प्रयोग किया है।

छात्रों को उनकी रुचि एवं जिज्ञासा के अनुकूल विषय-वस्तु का ज्ञान प्रदान करना, ज्ञान को स्पष्ट रूप से समझाना था तथा ऐसी कक्षा परिस्थितियाँ एवं कक्षा वातावरण तैयार करना, जिसमें छात्र अधिकतम अधिगम क्रियाएँ एवं अधिगम अनुभव प्राप्त कर सकें, एक शिक्षक के लिए महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य है ।

बालक का विकास कब और कितना ज्ञान प्रदान करता है इसके लिए कुछ सूत्रों का निर्माण किया गया है। इन सूत्रों को शिक्षण सूत्रों के नाम से जाना जाता है । इन शिक्षण सूत्रों को मूलतः आधार मानकर शिक्षण किया जाता है।

शिक्षण सूत्र का अर्थ 

 

शिक्षण सूत्रों के विषय में कॉमेनियम, हरबर्ट और रूसो ने अधिक कार्य किया है इन्होंने शिक्षण सूत्रों के विषय में लिखा है-
“शिक्षकों के अनुभवों एवं शिक्षाशास्त्रियों की अपनी सूझ-बूझ एवं दार्शनिक परिपेक्ष्य पर आधारित वे मार्गदर्शक सुझाव जो शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को एक विशेष संकेत एवं दिशा प्रदान करते हैं वही शिक्षण सूत्र कहलाते हैं । इनके द्वारा शिक्षक अपने शिक्षण सम्बन्धी कार्यों तथा सामान्य विचारों एवं धारणाओं को एक निश्चित रूप देता है इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये सभी शिक्षण अधिगम की परिस्थितियों में लागू होते हैं । इसलिए उन्हें सामान्यीकृत अनु-सिद्धान्त (Generalized Principle) की कोटि में रखा जाता है । इसलिए इनका सार्वभौमिक महत्त्व (Universal Importance) है । इनकी विश्वसनीयता शिक्षण औपचारिक (Formal) एवं अनौपचारिक (Informal) दोनों ही क्षेत्रों में समान रूप से देखी जा सकती है।”

शिक्षण के सूत्र की परिभाषाएँ 

फ्रोबेल के अनुसार “शिक्षण का उद्देश्य है अधिक-से-अधिक पाना न कि अधिक-से-अधिक खोना । शिक्षण सूत्र बच्चों को अधिक-से-अधिक ग्रहण करने योग्य बनाते हैं।”

टी. रायमण्ट के अनुसार-“शिक्षण सूत्र उन तरीकों को बताते हैं जिससे यह आशा की जाती है कि सिद्धान्त प्रयोग में सहायक होंगे।”

अतः यह कहा जा सकता है कि शिक्षण कार्य को लक्ष्य तक पहुँचाने वाले सूत्र शिक्षण सूत्र हैं।

शिक्षण तथा शिक्षण सूत्र

1. शिक्षण कार्य को लक्ष्य तक पहुँचाने वाले सूत्र शिक्षण सूत्र हैं।

2. शिक्षण एक निर्धारित लक्ष्य है और उस निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का मार्ग निर्देशन शिक्षण सूत्र

3. शिक्षण छात्रों की शक्तियों के विकास में सहायता देता है और शिक्षण सूत्र छात्रों की शक्तियों को पहचानने में सहायता करते हैं।

4. शिक्षण सूत्र शिक्षण को अधिक रोचक, रचनात्मक तथा बच्चों की रुचि के अनुकूल बनाने का माध्यम हैं।

5. शिक्षण का अर्थ है अधिगम की क्रिया को प्रभावशाली तथा व्यवस्थित बनाना। शिक्षण सूत्र विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के लिए किस प्रकार की प्रविधि महत्त्वपूर्ण हो सकती है इसका ज्ञान कराते हैं।

छात्राध्यापकों को आरम्भ में जब कक्षाओं में शिक्षण अभ्यास के लिए भेजा जाता है तो उनके सामने बड़ी कठिनाई आती है । अतः नवसिखिये अध्यापकों को इन सूत्रों का ज्ञान प्राप्त करके इसी आधार पर शिक्षण करना चाहिए ।

 शिक्षण के प्रमुख सूत्र 

कक्षा शिक्षण में निम्नलिखित शिक्षण सूत्रों का प्रयोग किया जाता है । ये सूत्र सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत तथा विश्वसनीय होते हैं।प्रमुख शिक्षण सूत्र निम्नलिखित हैं-

(1) सरल से कठिन की ओर (From Simple to Complex),
(2) ज्ञात से अज्ञात की ओर (From known to Unknown),
(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर (From Concrete to Abstract),
(4) पूर्ण से अंश की ओर (From Whole to Part),
(5) अनिश्चित से निश्चित की ओर (From Indefinite to Definite),
(6) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर (From Seen to Unseen),
(7) विशिष्ट से सामान्य या उदाहरण से सिद्धान्त की ओर (From particular to General)
(8) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर (From Analysis to Synthesis),
(9) मनोवैज्ञानिक से तर्क-संगत की ओर (From Psychological to Logical),
(10) अनुभूत से युक्ति-युक्त (तर्कपूर्ण) की ओर (From Empirical to Rational),
(11) प्रकृति का अनुसरण (Follow Nature)



(1)  सरल से जटिल की ओर 

 

इस नियम का तात्पर्य बालक को पहले सरल बातों का, तब जटिल बातों का ज्ञान देने से है। पाठ का विभाजन करते समय ध्यान देने चाहिए कि पहले सरल बाते आए  बाद में क्रम से जटिल । बालकों का बौद्धिक विकास होने के साथ-साथ पाठ की जटिलता भी बढ़ती जाये ।

बालक पहले सरल बातों को सीखने के बाद ही जटिल बातों को सीखता है। आरम्भ में ही जटिल बात रख देने पर वह हिम्मत हार बैठता है । तथा उसका मन सीखने में नहीं लगता।

यदि पहले सरल तथ्य उसके सामने रखेंगे तो वह रुचिपूर्वक सीखने से आनन्द लेगा। कठिन कामों की ओर बालक अपनी अतिरिक्त शक्ति लगाकर अग्रसर होते हैं। जिससे कठिन बातों को भी सरलता से सीख जाते हैं ।

जैसे- फूल के भागों का वर्णन छोटे बच्चों के लिए कठिन है लेकिन पूरे फूल का वर्णन सरल होता है। बच्चे किसा चीज को समग्र रूप में देखना सरल समझते हैं लेकिन खण्डों में प्रस्तुतीकरण उनके लिए कठिन हो जाता है।

इसी प्रकार पढ़ना आरम्भ करने का सबसे उत्तम ढंग अक्षरों या शब्दों से आरम्भ करना नहीं है यद्यपि तर्कात्मक ढंग से यही सहज विधि प्रतीत होती है। सबसे अच्छी विधि वाक्यों से आरम्भ करना है।

यदि आप इतिहास का शिक्षण राज्य, राष्ट्र विधान सभा शासन अथवा न्याय से आरम्भ करेंगे तो बालक कुछ भी नहीं सीख सकेगा और इस विषय में वह अपनी रुचि खो बैठेगा । यह बालकों के लिए बोधगम्य नहीं है।

शिक्षकों को इस सूत्र का पालन अवश्य करना चाहिए । इससे पाठ में बच्चों की रुचि बनी रहती है, वे आगे की बात सीखने के लिए आत्म-विश्वास प्राप्त कर लेते हैं । उन पर शिक्षण का प्रभाव भी स्थायी होता है । इस विधि की ओर सबसे पहले हरबर्ट ने ध्यान दिया थ

(2) ज्ञात से अज्ञात की ओर 

 

किसी भी माध्यम से बालक ने जो कुछ सीख लिया है, वही उसका ज्ञात है । वह इसी ज्ञात या पूर्व ज्ञान के सहारे नया ज्ञान प्राप्त करता है । 

जो बात वह जानता है उसी के सहारे नई बात बतानी चाहिए। इस विधि से वह जो कुछ सीखेगा, सब उसके ज्ञान का अंग बन जायेगा ।

अत: अध्यापकों को चाहिए कि किसी विषय को पढ़ाने के पहले उस विषय से सम्बन्धित बालक के पूर्व ज्ञान को मालूम करें । पूर्व ज्ञान को जगाकर उसी के आधार पर नया ज्ञान उपस्थित करें। ज्ञात से अज्ञात का सम्बन्ध जुड़ जाने पर ज्ञान स्थायी हो जाता है ।

उदाहरण के लिए, – रामचन्द्र जी से सम्बन्धित इतिहास का पाठ रामलीला से आरम्भ होगा और व्यापारिक वस्तुओं पर भूगोल का पाठ । शिशुओं की भोजन, वस्त्र की वस्तुओं के आधार पर यह
बताया जा सकता है ।

उपजाऊ और समतल भूमि वाले प्रदेश के बच्चों को रेगिस्तानी प्रदेश के विषय में ज्ञान देना है तो उनसे उनके पूर्व ज्ञान पर कुछ प्रश्न पूछने होंगे; जैसे- तुम्हारे यहाँ की भूमि कैसी है, उसमें क्या-क्या पैदा होता है, खेतों में अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक तत्व क्या हैं, यदि खेतों में पानी न पड़े तो उसका क्या प्रभाव होगा ।

इसी पूर्व अनुभूत ज्ञान पर नये प्रश्न पूछने होंगे; जैसे-जहाँ पानी कम बरसता है वहाँ कैसी पैदावार होगी? इस प्रकार के प्रश्न पूछने के बाद बच्चों को बता सकते हैं कि रेगिस्तान में कैसी पैदावार होती है । रेगिस्तान में पेड़ कटीले क्यों होते हैं । इसका भी ज्ञान अर्जित ज्ञान की सहायता से बच्चों को दिया जा सकता है।

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(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर 

इसे मूर्त से अमूर्त की ओर सूत्र भी कहते हैं । आरम्भ में बालक सूक्ष्म को नहीं समझता । पहले वह स्थूल का ज्ञान प्राप्त करता है । हम जो कुछ देखते, स्पर्श करते अथवा इन्द्रियों से अनुभव करते हैं वहीं सब स्थूल है । सूक्ष्म उन्हीं वस्तुओं से सम्बन्धित विचार है ।

बालक जो ज्ञान प्राप्त करता है उसका इन्द्रियजनित अनुभव है । सूक्ष्म का ज्ञान श्रेष्ठ अवश्य है लेकिन विद्यार्थी उसे सरलता से ग्रहण नहीं कर पाते । अत: विषय को उसके सामने स्थूल रूप में रखना चाहिए । स्थूल को अधार बनाकर अध्यापक धीरे-धीरे सूक्ष्म की ओर जाय तो अच्छा है ।

नेत्र, स्पर्श, घ्राण, कर्ण, स्वाद इन्द्रियों से सम्बन्धित पदार्थ स्थूल पदार्थ कहे जाते हैं । जर्मनी के प्रसिद्ध शिक्षाविद् पेस्टालॉजी ने कहा है-“ऐसी वस्तुएँ स्थूल कही जाती हैं। जो बालकों के सम्पर्क में आती हों और जो उनके विचारों को उद्बोध कर सकती हों।” इसलिए बालकों की शिक्षा सदा स्थूल पदार्थों तथा तथ्यों से आरम्भ करना चाहिए।

उदाहरणार्थ-दो,और तीन मिलकर पाँच होते हैं यह भाव सूक्ष्म है । वह आरम्भ में दो और तीन के भाव को नहीं समझ सकता । यदि उसे दो गोलियाँ और फिर तीन गोलियाँ दे दें तो वह पाँच गोलियों को प्रत्यक्ष देखेगा । वस्तुओं के इस प्रकार के अभ्यास से वह दो और तीन के भाव को समझ जायेगा ।

इसी प्रकार आरम्भ में बालक फूलों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है । लेकिन वह रंग के बारे में नहीं जानता । नीले रंग को पीला और पीले को नीला कह देगा। लेकिन रंग-बिरंगी वस्तुओं को देखते-देखते उसे रंगों का ज्ञान हो जाता है ।

अब यह कह सकते हैं कि बालक के अनुभव में पहले-पहल स्थूल वस्तु आती है, उसके बाद वस्तुओं के निरीक्षण तथा प्रयोग से भावों की उत्पत्ति होती है ।

(4)  पूर्ण से अंश की ओर 

 

बालक पहले पूर्ण वस्तु का ज्ञान प्राप्त करता है, उसे अंग का नहीं । उसे अवयवी (Whole) का ज्ञान होता है, अवयव (Part) का नहीं। यह मनोविज्ञान का एक सिद्धान्त है जिसे ‘अवयवीवाद’ (Gestalt Theory) कहते हैं ।

पेड़ कहने पर बालक पूरे पेड़ को समझ जाता है, उसके मस्तिष्क में पेड़ का चित्र उपस्थित हो जाता है—वह पूरे पेड़ के बारे में सोचने लगता है। पेड़ के विभिन्न भागों की ओर उसका ध्यान नहीं जाता । अध्यापक बालक के इस पूर्ण पेड़ के ज्ञान के आधार पर पेड़ के अन्य भागों का ज्ञान कराता है। यही इस सूत्र का आशय है।

इसी के आधार पर आजकल सबसे पहले वाक्यों का ज्ञान कराया जाता है, तब अक्षरों का। इस सिद्धान्त से मिलता-जुलता एक और सूत्र है’विभिन्नता से एकता की ओर’ (From Part to Whole)। यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके द्वारा बालक विभिन्न वस्तुओं के आधार पर पूरे विषय का ज्ञान प्राप्त करता है ।

उदाहरण के लिए “घर और स्कूल के प्राकृतिक वातावरण से आरम्भ करके वह भूगोल का ज्ञान प्राप्त करता है. । स्पष्ट है कि भूगोल की शिक्षा देने के लिए हमें पृथ्वी से आरम्भ नहीं करना चाहिए, वरन् उस वस्तु से आरम्भ करना चाहिए जिसे बालक जानता है । वही उसके लिए ‘अवयवी’ (Whole) है। अत: इन दोनों नियमों में केवल दृष्टिकोण का ही अन्तर है। 

उदाहरण मान लीजिए बच्चे को आप पर्वत के विषय में बताना चाहते हैं । लेकिन बच्चों को भी अभी यह जानकारी नहीं है कि पर्वत क्या होता है । इसलिए सबसे पहले आपको यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि पर्वत से मिलती-जुलती आकृति छात्र जानते हैं कि नहीं ।

5) अनिश्चत से निश्चित की ओर 

 

इस सूत्र के अन्तर्गत शिक्षण को अस्पष्ट एवं अनिमित ज्ञान को क्रमशः स्पष्ट एवं नियमित करना होता है । प्रारम्भ में छात्रों के विचारों में अस्पष्टता तथा अनिश्चितता होती है। वे अपनी संवेदनाओं द्वारा अनेक अस्पष्ट एवं अनियमित वस्तुओं की जानकारी करते हैं।

धीरे-धीरे परिपक्वता आने पर उन्हें नये-नये अनुभवों का ज्ञान होता है और वे स्पष्ट व निश्चित विचारों को स्वीकार ने लगते हैं । शिक्षक को चाहिए कि वह उन्हें स्पष्ट व नियमित जानकारी प्रदान करे, गलत तथ्यों को सही रूप में बताए तथा उनकी अनिश्चित धारणाओं तथा विचारों को निश्चयात्मकता प्रदान करे।

(6) प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर 

 

बालक के सामने या उसके अनुभव में जो है वह प्रत्यक्ष है, जो उसके सामने नहीं है या अप्रत्यक्ष है, अनुभव में नहीं है, वह अप्रत्यक्ष है । पहले उन वस्तुओं का ज्ञान देना ठीक है जो उसके लिए
उनका ज्ञान देना चाहिए । पहले प्रत्यक्ष हैं या सामने हैं ।

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जब जो वस्तुएँ सामने नहीं वर्तमान का ज्ञान देकर तब भूत और भविष्य को बताना चाहिए । सामने की वस्तुओं का ज्ञान बालक सरलता से शीघ्र पा लेता है । प्रत्यक्ष का ज्ञान प्रत्यक्ष की वस्तुओं से देना चाहिए । उनके सामने प्रत्यक्ष बातों के ही उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए।

उदाहरण उदाहरण के तौर पर मान लीजिए कि हमें शेरशाह का शासनतंत्र पढ़ाना है । बच्चे शेरशाह के शासन प्रबन्ध को तभी समझ सकते हैं कि जब थोड़ा बहुत आधुनिक प्रशासन की जानकारी रखते हैं ।

वे जानते हैं कि सरकार-सिंचाई, यातायात और न्याय पर क्या-क्या कार्य कर रही है तो निश्चित है वे इसी आधार पर शेरशाह का शासनतंत्र सीख सकते हैं।

(7) विशिष्ट से सामान्य की ओर

इस सूत्र से अभिप्राय है कि पहले छात्रों के समक्ष विशिष्ट उदाहरण प्रस्तुत किये जायें और बाद में उन्हीं उदाहरणों एवं दृष्टान्तों के माध्यम से सामान्य सिद्धान्त अथवा सामान्य नियम निकलवाये जायें ।

इसमें शिक्षक पहले विशिष्ट तथ्य, उदाहरण, दृष्टान्त छात्रों के समक्ष
प्रस्तुत करता है और फिर उनके आधार पर छात्रों को सामान्य नियम या सिद्धान्त तक पहुँचने के लिए प्रोत्साहित करता है । इस सिद्धान्त के द्वारा अर्जित ज्ञान स्थायी होता है तथा बौद्धिक एवं तार्किक शक्ति का विकास करता है।

 

(8) विश्लेषण से संश्लेषण की ओर 

 

आरम्भ में बालक का ज्ञान अधूरा, अनिश्चित तथा अव्यवस्थित होता है । ज्ञान को पूर्ण निश्चित और व्यवस्थित करने का काम शिक्षक करता है। वह इस कार्य को विश्लेषण प्रणाली से करता है । विश्लेषण वह क्रिया है जिसमें हम सम्पूर्ण वस्तु के अध्ययन से प्रारम्भ करते हैं ।

तब उसे विभिन्न भागों या तत्वों में बाँटते हैं और हर भाग का अलग-अलग अध्ययन करते हैं । भूगोल की शिक्षा में सम्पूर्ण पृथ्वी के विषय का आरम्भ किया जायेगा । जलवायु के अनुसार पृथ्वी को कई भागों में विभाजित करेंगे। फिर प्रत्येक भाग के मानव, पशु तथा वनस्पति जीवन का अध्ययन करेंगे।

लेकिन केवल विश्लेषण से काम नहीं चलता, संश्लेषण भी करना होता है और ऐसा करने से ज्ञान, स्पष्ट, निश्चित और क्रमबद्ध हो जाता है । संश्लेषण का अर्थ किसी वस्तु के विभिन्न अंगों या भागों से आरम्भ करके उस वस्तु के सम्पूर्ण रूप की ओर चलने से हैं । इस प्रणाली का प्रयोग समस्या उभारी जाने वाली विषय-सामग्री में किया जाता है।

जैसे-भूगोल, रेखागणित,विज्ञान, व्याकरण आदि । रेखागणित और विज्ञान में समस्या का विश्लेषण आवश्यक है। समस्या का विश्लेषण करते समय नवीन समस्याओं के उत्पन्न हो जाने पर उनका समाधान संश्लेषण द्वारा करना चाहिए ।

यदा-कदा आरम्भ में ही इसका प्रयोग हितकर होता है। ये विधियाँ एक-दूसरे के पूरक हैं । केवल विश्लेषण से काम नहीं चलता इसके बाद संश्लेषण आवश्यक है। अतः विश्लेषण संश्लेषण विधि ही शिक्षण की उत्तम विधि है।

 

(9) मनोवैज्ञानिक से तर्क-संगत की ओर 

 

शिक्षा के देने के दो क्रम हैं–तर्क-संगत और मनोवैज्ञानिक । तर्क-संगत क्रम का अर्थ है पाठ्य विषय को तर्कात्मक ढंग से विभिन्न भागों में विभाजित करके, बालकों के सामने रखना । पाठ्य सामग्री को विकसित करते हुए शिक्षक बालकों को इसके अन्तिम स्वरूप तक ले जाता है ।

ऐसा करते समय वह छात्रों की रुचि, जिज्ञासा और ग्रहण शक्ति की अवहेलना करता है । बालक समझे या न समझे, पर शिक्षक विषय को तर्क-संगत क्रम में प्रस्तुत कर देता है । मनोवैज्ञानिक क्रम दूसरा क्रम है। इसका अर्थ है बालकों की रुचि, जिज्ञासा, उत्साह, आयु, ग्रहण शक्ति आदि के अनुसार किसी विषय या वस्तु को प्रस्तुत करना ।

यह क्रम तर्कात्मक क्रम से उत्तम है। भाषा की शिक्षा देने में तर्क-संगत क्रम का प्रयोग करने पर हमें वर्ण तथा ध्वनि से प्रारम्भ करना करना होगा। लेकिन ऐसे शिक्षण में बालक रुचि न लेंगे क्योंकि उनकी रुचि तर्कात्मक क्रम को और नई विचारधारा मनोवैज्ञानिक क्रम को महत्त्व देती है।

इस क्रम में सीखना रोचक, उत्साहपूर्ण और उपयोगी है । आरम्भ में मनोवैज्ञानिक क्रम ही उत्तम है । यदा-कदा तर्क-संगत क्रम भी उत्तम होता है। अतः हमें मनोवैज्ञानिक क्रम से तर्कात्मक क्रम की ओर चलना चाहिए।

(10) अनुभूत से युक्ति-युक्त तर्कपूर्ण की ओर

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का प्रारम्भ अनभूत ठोस अनुभवों से किया जाना चाहिए क्योंकि ठोस अनुभूत सत्यों की अनुभूति के बाद ही युक्ति-युक्त चिन्तन आता है। शिक्षकों को छात्रों के समक्ष प्रत्यक्ष अनुभव तथा उदाहरण प्रस्तुत करके उन्हें तर्कयुक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए ।

(11) प्रकृति का अनुसरण 

 

इस शिक्षण सूत्र से तात्पर्य बालक की प्रकृति को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान करने से है। शिक्षक को चाहिए कि वह जो भी बात बताये वह बालक के मानसिक एवं शारीरिक विकास के अनुरूप ही होनी चाहिए। यदि शिक्षक ऐसा नहीं करता तो इसके छात्र के विकास में बाधा उत्पन्न होगी।


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